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Shree ShreeYada Mata ki Katha /श्री श्रीयादे माता का सत्य कथा

कुम्हार प्रजापति धर्म की संस्थापक भक्त शिरोमणि श्री श्रीयादे माता का जन्म सतयुग में गुजरात के पावन प्रभास क्षेत्र में हुआ था।  इनके पिता का नाम रिधेश्वर लायड जी तथा माता जी का नाम सेजु बाई था। श्री श्रीयादे बचपन से धर्म भीरु थी । श्री श्रीयादे का विवाह प्राचीन युग मे हिरण्यखण्ड जो अब तालालागिर ( गुजरात) के सोमजी कुम्हार एवं माता परमेश्वरी के पुत्र सांवत जी के साथ हुआ था 

श्री श्रीयादे माता के एक पुत्र हुआ, जिसका नाम गौतम था । तालालागिर हिरण्यकश्यप की राजधानी के अंतर्गत आता था। हिरण्यकश्यप को ब्रह्माजी ने उसकी कठोर तपस्या के कारण एक वरदान दिया था की वह ना दिन, ना रात में,ना आकाश में, ना पाताल में, ना सुबह के समय, ना शाम के समय, ना मनुष्य के हाथों से, ना पशु से और ना ही किसी अस्त्र या शस्त्र आदि से मर पाएगा। ऐसा अमरता जैसा वरदान पाकर हिरण्यकश्यप ने प्रजा पर घोर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया । सभी प्रकार के धार्मिक कार्यो पर पाबंदी लगा दी और खुद को भगवान घोषित कर दिया । 

सांवत जी मिटटी के बर्तन बनाने का काम करते थे। माँ श्री श्रीयादे नित्य प्रतिदिन भगवान की पूजा करती थी और पूजा के पश्चात भगवान की मूर्ति को हिरण्यकश्यप के डर से पानी से भरे मटके में रख देती थी। 

हिरण्यकश्यप के अत्याचार से प्रजा को बचाने के लिए श्री श्रीयादे माता मिटटी के बर्तन घर घर लेकर जाती और हर घर की महिलाओं को भगवान का जाप करने की प्रेरणा देती थी। श्रीयादे माता के धर्म के प्रचार की खबर हिरण्यकश्यप तक पहुंची तो एक दिन भेष बदलकर सुबह सुबह श्री श्रीयादे माता की झोपड़ी के पास पानी पीने के बहाने से पहुंचा। उस समय श्री श्रीयादे माता भगवान की पूजा कर मूर्ति मटके के अंदर रख रही थी। हिरणकश्यप को श्री श्रीयादे माता ने अपनी शक्ति से पहचान लिया था। उसने उसी मटके का पानी हिरण्यकश्यप को पिलाया, उसी पानी के जल प्रभाव से हिरण्यकश्यप की पत्नी कुमदा ने प्रहलाद को जन्म दिया।

प्रहलाद ने जन्म से सात दिन तक अपनी माता का दूध नही पिया। हिरण्यकश्यप ने पूरे राज्य में मुनादी करवाई की जो स्त्री प्रहलाद को अपना दूध पिलायेगी उसको इनाम दिया जाएगा। राज दरबार की स्त्रियों ने प्रयास किया लेकिन प्रहलाद ने दूध नही पिया। सबसे अन्त में श्री श्रीयादे माता ने हिरण्यकश्यप के महल में जाकर प्रहलाद को अपना दूध पिलाया और हिरण्यकश्यप की पत्नी कुमदा को भगवान का जाप मन ही मन मे करने की प्रेरणा दी और उसके पुत्र का नाम प्रहलाद रखा।

समय बीतता गया, एक दिन प्रहलाद अपने सैनिको के साथ गुरुकुल जा रहा था, उसने मार्ग में देखा की मिटटी के बर्तन आग में पकाए जा रहे है और श्री श्रीयादे माता हरि नाम का जाप कर तपस्या कर रही है। भगवान का नाम सुनकर हिरण्यकश्यप पुत्र प्रहलाद क्रोधित हुआ और बोला इस धरती का भगवान मेरा पिता है तुम किसी दूसरे भगवान का नाम नही ले सकती।

श्री श्रीयादे माता ने अपनी आँखें खोली ओर प्रहलाद को बताया की इस आग की न्याव में एक मटके में बिल्ली के बच्चे जीवित रह गए है, उनकी रक्षा के लिए हरि से प्रार्थना कर रही हूँ की – “हे भगवान इस दहकती आग को शान्त करो।”  श्री श्रीयादे माता ने  कहा कि इस धरती का भगवान तुम्हारा पिता नही कोई और है। प्रहलाद ने श्री श्रीयादे माता को कहा की अगर तुम्हारे भगवान ने इन बिल्ली के बच्चो को नही बचाया तो मेरा पिता तुम्हे मौत की सजा देगा। 

श्री श्रीयादे माता पुनः भगवान का जाप करने लगी, थोड़ी ही देर में हरि महिमा का चमत्कार हुआ। आग की न्याव के नीचे से पाताली गंगा निकली और दहकती हुई आग को शान्त कर दिया। मिटटी के सारे मटके पक गए पर एक मटका कच्चा रह गया, जिसमें बिल्ली के बच्चे जीवित निकले । 

प्रहलाद ने अपनी आँखों के सामने भगवान की महिमा देखी और चकित रह गया।  उसने श्री श्रीयादे माता के पैर पकड़कर माफी मांगी और कहा की आज से आप मेरी धर्म गुरु हो। आप मुझे भक्ति का मार्ग सिखाओ।

इसी दिन से सनातन धर्म के लोग शीतला सप्तमी मनाने लगे और प्रहलाद को भक्त प्रहलाद कहा जाने लगा। श्री श्रीयादे माता ने भक्त प्रहलाद को धर्म की शिक्षा प्रदान की। भक्त प्रहलाद राजमहल में जाकर नित्य प्रतिदिन हरि जाप करने लगा। हिरण्यकश्यप को जब यह पता चला की मेरा पुत्र हरि का नाम ले रहा है, तो उसने प्रहलाद को राजमहल से नीचे फेंका, ऊंचे पहाड़ो पर बांधकर नीचे गिराया, जहरीले सांपो से डसवाया, जहर पिलाया एवं नाना प्रकार के अत्याचार किये लेकिन हर बार हरि कृपा और श्री श्रीयादे माता की कृपा दृष्टि से प्रहलाद बच जाता।

एक दिन हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका के साथ प्रहलाद को दहकती अग्नि में बिठा दिया। भक्त प्रहलाद ने हरि जाप शुरू कर दिया। होलिका जलकर भस्म हो गई। भक्त प्रहलाद को भगवान ने फिर से बचा लिया, तभी से सनातन धर्म मे होली का त्यौहार मनाया जाने लगा।

एक दिन हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को खम्बे से बांध दिया और कहा कि आज कितना भी हरि का जाप कर लेना तेरा भगवान तुझे बचाने यहाँ मेरे सामने नही आएगा। उसने अपनी म्यान से तलवार निकाली और भक्त प्रहलाद पर प्रहार करने लगा, उसी समय भगवान नरसिंह रूप धारण किए हुए खम्भा तोड़कर प्रकट हुए। भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप को पकड़कर अपनी जांघो के बीच बिठाया और अपने नाखूनों से उसका पेट चीरकर अत्याचारी हिरण्यकश्यप का वध कर दिया। पूरी प्रजा श्री श्रीयादे माता और भक्त प्रहलाद की जय जयकार करने लगी।

जनता  ने प्रहलाद को अपना राजा बनाया। पूरे राज्य में सत्य और धर्म की पुनः स्थापना हुई। इस प्रकार श्रीयादे माता ने भक्त प्रहलाद को भक्ति का मार्ग दिखाकर भक्त प्रहलाद के माध्यम से अत्याचारी हिरण्यकश्यप का वध करवाकर धर्म की पुनः स्थापना करवाई।

सभी धर्म प्रेमी बंधुओ को प्रति वर्ष माघ शुक्ल दूज को श्रीयादे माता की जयंती मनानी चाहिए और घर घर मीठा पकवान बनाकर श्री श्रीयादे माता के भोग लगाना चाहिए। महिलाओं को प्रत्येक गुरुवार को श्री श्रीयादे माता का व्रत रखकर आराधना करनी चाहिए। 

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History of Kumhar Samaj / कुम्हार समाज का इतिहास

कुम्हार समाज का इतिहास

कुम्हार भारत, पाकिस्तान और नेपाल में पाया जाने वाला एक जाति या समुदाय है. इनका इतिहास अति प्राचीन और गौरवशाली है. मानव सभ्यता के विकास में कुम्हारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. कहा जाता है कि कला का जन्म कुम्हार के घर में ही हुआ है. इन्हें उच्च कोटि का शिल्पकार वर्ग माना गया है. सभ्यता के आरंभ में दैनिक उपयोग के सभी वस्तुओं का निर्माण कुम्हारों द्वारा ही किया जाता रहा है. पारंपरिक रूप से यह मिट्टी के बर्तन, खिलौना, सजावट के सामान और मूर्ति बनाने की कला से जुड़े रहे हैं. यह खुद को वैदिक ‌भगवान प्रजापति का वंशज मानते हैं, इसीलिए ये प्रजापति के नाम से भी जाने जाते हैं. इन्हें प्रजापत, कुंभकार, कुंभार, कुमार, कुभार, भांडे आदि नामों से भी जाना जाता है. भांडे का प्रयोग पश्चिमी उड़ीसा और पूर्वी मध्य प्रदेश के कुम्हारों के कुछ उपजातियों लिए किया जाता है. कश्मीर घाटी में इन्हें कराल के नाम से जाना जाता है. अमृतसर में पाए जाने वाले कुछ कुम्हारों को कुलाल या कलाल कहा जाता है. कहा जाता है कि यह रावलपिंडी पाकिस्तान से आकर यहां बस गए. कुलाल शब्द का उल्लेख यजुर्वेद (16.27, 30.7) मे मिलता है, और इस शब्द का प्रयोग कुम्हार वर्ग के लिए किया गया है.आइए जानते हैं कुम्हार जाति का इतिहास कुम्हार शब्द की उत्पत्ति कैैसे हुई?

कुम्हार  किस कैटेगरी में आते हैं?

आरक्षण की व्यवस्था के अंतर्गत कुम्हार जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है.मध्य प्रदेश के छतरपुर, दतिया, पन्ना, सतना, टीकमगढ़, सीधी और शहडोल जिलों में इन्हें अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है; लेकिन राज्य के अन्य जिलों में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में सूचीबद्ध किया गया है. अलग-अलग राज्योंं में कुमार के अलग-अलग सरनेम है.

कुम्हार कहां पाए जाते हैं?

यह जाति भारत के सभी प्रांतों में पाई जाती है. हिंदू प्रजापति जाति मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में पाई जाती है. महाराष्ट्र में यह मुख्य रूप से पुणे, सातारा, सोलापुर, सांगली और कोल्हापुर जिलों में पाए जाते हैं.

कुम्हार शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?

कुम्हार शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द “कुंभ”+”कार” से हुई है. “कुंभ” का अर्थ होता है घड़ा या कलश. “कार’ का अर्थ होता है निर्माण करने वाला बनाने वाला या कारीगर. इस तरह से कुम्हार का अर्थ है- “मिट्टी से बर्तन बनाने वाला”.

भांडे शब्द का प्रयोग भी कुम्हार जाति के लिए किया जाता है. भांडे संस्कृत के शब्द “भांड” से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- बर्तन.

कुम्हार जाति का इतिहास

कुम्हार जाति का इतिहास लिखित नहीं है लेकिन धर्म ग्रंथों और इतिहास से संबंधित पुस्तकों में कुम्हारों के बारे में उल्लेख किया गया है. प्राचीन ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि बहुत प्रारंभिक काल से ही मिट्टी के बर्तन उपयोग में थे. इससे इस बात का पता चलता है कि कुम्हार जाति निश्चित रूप से एक प्राचीन जाति है. कुम्हार जाति की उत्पत्ति के बारे में अनेक मान्यताएं हैं. आइए उनके बारे में विस्तार से जाने.

पहले कुम्हार की उत्पत्ति

वैदिक मान्यताओं के अनुसार, कुम्हार की उत्पत्ति त्रिदेव यानी कि सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा, पालनहार भगवान विष्णु और संहार के अधिपति भगवान शिव से हुई है. सृष्टि के आरंभ में त्रिदेव को यज्ञ करने की इच्छा हुई. यज्ञ के लिए उन्हें मंगल कलश की आवश्यकता थी. तब प्रजापति ब्रह्मा ने एक मूर्तिकार कुम्हार को उत्पन्न किया और उसे मिट्टी का घड़ा यानी कलश बनाने का आदेश दिया. कुम्हार ने ब्रह्मा जी से कलश निर्माण के लिए सामग्री और उपकरण उपलब्ध कराने की प्रार्थना की. जब भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र चाक के रूप में उपयोग करने के लिए दिया. शिव जी ने धुरी के रूप में प्रयोग करने के लिए अपना पिंडी दिया. ब्रह्मा जी ने धागा (जनेऊ), पानी के लिए कमंडल और चक्रेतिया दिया. इन सभी सामग्री और उपकरण की मदद से फिर कुम्हार ने मंगल कलश का निर्माण किया जिससे यज्ञ संपन्न हुआ.

हिंदू कुम्हार सृष्टि के रचयिता वैदिक प्रजापति (भगवान ब्रह्मा) के नाम पर खुद को सम्मानपूर्वक प्रजापति कहते हैं.

एक बार भगवान ब्रह्मा ने अपने पुत्रों के बीच गन्ना वितरित किया. सभी पुत्रों ने अपने अपने हिस्से का गन्ना खा लिया, लेकिन काम में लीन होने के कारण कुम्हार गन्ना खाना भूल गया. बाद में जिस गन्ने को उसने मिट्टी के ढेर के पास रख दिया था, अंकुरित होकर पौधे के रूप में विकसित हो गया. कुछ दिन बाद ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों से गन्ने मांगे तो कोई भी पुत्र गन्ना नहीं लौटा सका. लेकिन कुम्हार ने गन्ने का पूरा पौधा उन्हें भेंट कर दिया. इस बात से ब्रह्मा जी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने कुम्हार के काम के प्रति निष्ठा देखकर उसे प्रजापति की उपाधि से पुरस्कृत किया. इस प्रकार कुम्हार समाज प्रजापति के नाम से जाने जाने लगे.

“कुम्हारों की उत्पत्ति की यह दंतकथा पंजाब, राजस्थान और गुजरात में ज्यादा प्रचलित है. मालवा क्षेत्र में भी कुम्हारों की उत्पत्ति के बारे में ऐसी ही कथा प्रचलित है. लेकिन यहां मान्यता है कि ब्रह्मा जी ने गन्ने की जगह पान के पत्तों को वितरित किया था.”

कुछ लोगों का मत है जिस तरह से ब्रह्मा जी ने पंचतत्व आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी (पदार्थ) से सृष्टि का निर्माण करते हैं, उसी प्रकार से कुम्हार भी इन्हीं तत्वों‌  से बर्तन बनाता है. कुम्हारों के रचनात्मक कला को सम्मान देने के लिए उन्हें प्रजापति कहा गया.

दक्ष प्रजापति के वंशज

एक अन्य कथा के अनुसार, दक्ष प्रजापति भगवान शिव के ससुर और ब्रह्मा जी के पुत्र थे. ब्रह्मा जी ने उन्हें एक प्रतिष्ठित पद पर स्थापित किया था जिससे उनके अंदर अहंकार उत्पन्न हो गया. एक बार दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश समेत अन्य देवी-देवता भी पधारे. जब दक्ष प्रजापति पधारे तो सभी ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया. लेकिन ब्रह्मा जी और शिव जी खड़े नहीं हुए. इस बात से दक्ष प्रजापति क्रोधित हो गए उन्होंने कहा ब्रह्मा जी तो हमारे पिता है, लेकिन शिव हमारे दामाद हैं, उन्हें हमारे सम्मान में खड़ा होना चाहिए था. उन्होंने शिवजी को अपमानित किया. इससे नंदी क्रोधित हो गए और दक्ष प्रजापति से कहा आप इस तरह से महादेव का अपमान नहीं कर सकते. नंदी ने दक्ष प्रजापति को श्राप दिया कि आपके वंशज का ब्राह्मण से पतन हो जाएगा और उनका स्तर धीरे-धीरे गिरने लगेगा. इस प्रकार से राजा दक्ष के वंशज से अलग समाज का निर्माण होने लगा, जिसे हम आज कुम्हारिया प्रजापति के नाम से जानते हैं.

कुलालक  ब्राह्मण  के वंशज

एक किंवदंती के अनुसार, जब भगवान शिव ने हिमवंत की पुत्री से शादी करने का निर्णय किया, तो देव और असुर कैलाश में एकत्रित हुए. जब एक प्रश्न उठा कि समारोह के लिए आवश्यक बर्तन कहां से आएगा. फिर एक कुलालक

(ब्राह्मण) को बर्तन बनाने का आदेश दिया गया. कुलालक सभा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और प्रार्थना की कि उसे उसे बर्तन बनाने के लिए सामग्री और उपकरण दिया जाए. फिर विष्णु भगवान ने अपना सुदर्शन चक्र चाक के रूप में प्रयोग करने के लिए दिया, मंदार पर्वत को सुदर्शन चक्र के नीचे धुरी के रूप में स्थापित किया गया. आदि कूर्म आधार बन गए. फिर वर्षा के जल का उपयोग करके कुलालक ने मटके, बर्तन आदि का निर्माण किया और महादेव को विवाह के लिए दे दिया. तब से ही उनके वंशज कुंभकार के रूप में जाने जाते हैं.

कुलाल एक हिंदू जाति है, जो आमतौर पर भारतीय राज्यों आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के दक्षिणी हिस्सों में पाया जाता है. यह पारंपरिक रूप से मिट्टी के बर्तनों को बनाने का कार्य करते हैं.

पौराणिक मान्यता के अनुसार, कुलाल अपने मूल पूर्वज कुलालक के तीन पुत्रों के वंशज हैं, जो ब्रह्मा के पुत्र थे. कुलालक ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि उन्हें प्रतिदिन चीजों को बनाने और नष्ट करने की अनुमति दी जाए, इसलिए ब्रह्मा जी ने उन्हें एक कुम्हार बनाया.

पंजाब और महाराष्ट्र के कुछ भाग में कुम्हारों का एक वर्ग है जो कुबा या कुभा ऋषि से उत्पत्ति का दावा करता है. पंजाब के एक लोक मान्यता के अनुसार, ऋषि कुबा प्रतिदिन 20 मटकी बनाया करते थे और उसे दान के रुप में दिया करते थे. लेकिन एक दिन 30 साधुओं का एक समूह उनके घर आया और उन्हें मटकी दान देने को कहा. कुबा ऋषि असमंजस में पड़ गए. भगवान की कृपा पर विश्वास करके उन्होंने अपनी पत्नी को पर्दे के पीछे बैठने को कहा और सभी साधुओं को एक-एक करके दान देने को कहा. दैविक चमत्कार से मटकी की संख्या 20 से 30 हो गई और फिर सभी साधुओं को दान के रुप में एक-एक मटकी दिया जा सका.

ब्राह्मण पिता और वैश्य माता से उत्पत्ति

प्राचीन हिंदू शास्त्र के अनुसार, कुम्हार जाति की उत्पत्ति मिश्रित विवाह से हुई है. ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार, कुंभकार की उत्पत्ति ब्राह्मण पिता और वैश्य माता से हुई है. सर मोनियर विलियम्स ने अपने संस्कृत शब्दकोश में कुम्हार जाति को ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय माता की संतान के रूप में वर्णित किया है. हालांकि इस मान्यता को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता.

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